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ईसाई धर्मावलंबियों की महा उपवास काल (चालीसा) की हुई शुरुआत, राख बुधवार के दिन हर ईसाई धर्मावलंबी कपाल पर राख लगाता है माथे पर राख लगाना पछतावा का प्रतीक है जो हमारे जीवन में परिवर्तन, त्याग और आदर्श को बल देता है



Dhanbad।  ईसाई धर्मावलंबियों के लिए एक बड़ा ही महत्वपूर्ण एवं पवित्र दिन है। आज के दिन से ही काथलिक कलीसिया के पूजन विधि अर्थात ईसाई धार्मिक कैलेंडर के अनुसार महा उपवास काल (चालीसा) की शुरुआत हो जाती है। इस दिन को ईसाई धर्मावलंबी पुण्य काल का द्वार मानते हैं जिसे राख बुधवार अर्थात भस्म बुधवार के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन को दुख भोग के रूप में मनाया जाता है। आज से लेकर अगले 40 दिनों तक ईसाई धर्मावलंबी ईश्वर से प्रार्थना करते हैं तथा इस चालीसा काल के पवित्र समय के दौरान लोग प्रभु यीशु के बलिदान को याद करते हैं। इन 40 दिनों के समय को त्याग, तपस्या एवं बलिदान के रूप में देखा जाताहै। आज के दिन से अगले 40 दिनों तक विशेष प्रार्थना, त्याग, तपस्या, पुण्य का काम और खुद के जीवन का मूल्यांकन करते हुए यीशु मसीह के प्यार, बलिदान, दुख भोग तथा मृत्यु के रहस्यों को समझते हुए पासका पर्व अर्थात ईस्टर की तैयारी की जाती है। आज राख बुधवार के दिन हर ईसाई धर्मावलंबी कपाल पर राख लगता है। माथे पर राख लगाना पछतावा का प्रतीक है जो हमारे जीवन में परिवर्तन, त्याग और आदर्श को बल देता है। माथे पर राख लगाने के पूर्व राख की आशीष पवित्र जल से की जाती है। यह राख बीते वर्ष की खजूर पर्व के दौरान आशीष किए गए खजूर की पत्तियों से तैयार किया जाता है। फादर यह कहते हुए की 'शरीर का निर्माण मिट्टी से हुआ है और पुनः एक दिन मिट्टी में मिल जाएगा' एक-एक विश्वासी गण के कपाल पर इस राख को क्रूस का चिन्ह बनाते हुए लगते हैं। इस राख को धारण कर प्रत्येक विश्वासी यह प्रण लेता है कि आने वाले दिनों में वह उपवास, प्रार्थना, पुण्य का काम, दान- धर्म तथा प्रभु यीशु के नियमों का पालन करते हुए अपना जीवन बिताएगा। पवित्र बाइबल के अनुसार ईसा मसीह ने 40 दिन और 40 रात पहाड़ पर वीराने में रहकर प्रार्थना और उपवास की थी। इसी घटना का अनुकरण करते हुए चालीसा का काल मनाया जाता है। इन दिनों ईसाई समुदाय में किसी प्रकार का कोई भी जश्न या समारोह अर्थात शादी विवाह जैसे कार्यक्रम आयोजित नहीं किए जाते हैं।बुधवार को "राख बुधवार" के अवसर पर संत एंथोनी चर्च धनबाद में प्रात 7:00 बजे एवं संध्या 5:30 बजे प्रार्थना सभा का आयोजन किया गया। प्रार्थना सभा को संबोधित करते हुए सहायक फादर प्रदीप मरांडी ने  कहा- आज चालीसा काल की शुरुआत के साथ ही हम एक नया पूजन विधि वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं। जिसका सार यह है कि हम पश्चाताप करें एवं सुसमाचार में विश्वास करें। पश्चाताप इसलिए कि हम अपने मानवीय गुणों के कारण ईश्वर के विरुद्ध बार-बार कुछ ना कुछ छोटी बड़ी गलतियां कर बैठते हैं। इसलिए यह 40 दिनों का समय हमारे नवीनीकरण का समय है। हमें चाहिए कि हम ईश्वर के वचन पर विश्वास करें तथा ईश्वर की उपस्थिति को अपने जीवन में स्वीकार करें। इस बात पर विश्वास करें कि हमें नया जीवन देने वाले, हमारे पापों को क्षमा करने वाले, हमारे उद्धारकर्ता प्रभु यीशु स्वयं हमारे पास आ रहे हैं। जिन्होंने स्वयं क्रूस मृत्यु द्वारा हमारे पापों को धोकर साफ किया है। यह समय है ईश्वर के पास वापसी करने की तैयारी करने का। इसके लिए हमारे पास तीन सरल साधन है। पहला- दान- जब हम किसी को दान स्वरूप कुछ देते हैं तो हमारे मन में शंका या दुविधा नहीं होनी चाहिए। जब हम दाहिने हाथ से दान दें तो हमारे बाएं हाथ को पता नहीं चलना चाहिए अर्थात दान देकर ढिंढोरा नहीं पीटना चाहिए कि हमने दान स्वरूप क्या दिया और किसे दिया। दूसरा साधन है- प्रार्थना- हमें चाहिए कि हम सामूहिक प्रार्थना तथा पारिवारिक प्रार्थना के साथ-साथ व्यक्तिगत प्रार्थना को भी महत्व दें। तीसरा साधन है- उपवास- लेकिन जब हम उपवास करें तो ढोंगियों के समान व्यवहार ना करें और ना ही इस बात का ढिंढोरा पीटें। उपवास का अर्थ सिर्फ खाने- पीने की चीजों का त्याग नहीं होता बल्कि हमें अपनी शारीरिक एवं मानसिक कमजोरी पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है। यदि हम इन तीन तरह से अपने चालीसा काल को व्यतीत करें तो हम प्रार्थना, दान- पुण्य तथा उपवास के साथ शालीनता पूर्वक 40 दिनों को व्यतीत कर सकते हैं। 

अंत में चर्च के फादर ने सभी विश्वासी गण के कपाल पर राख से क्रूस का चिन्ह बनाएं।




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